आज ट्रैन से सफर कर रही हूं।घर जाना है।माँ बब्बा की तबीयत कुछ नासाज है।मुझे गति के विपरीत दिशा वाली सीट मिली है। बाहर देखते देखते ये सोच रही थी कि क्या लिखूं।बहुत सोचने पर भी कुछ विचार आ नहीं पा रहे। एकाएक पेड़ों को, घरों को, बाहर खड़े लोगों को, खुद से आगे जाते देखा। ऐसा लगने लगा समय विपरीत जा रहा है। लोगों से लदे हुए शहर की गलियों को छोड़ते हुए, खेतों की मीलों तक फैली हुई हरियाली दिख रही है। अच्छा लग रहा है। बगल में बैठा सहयात्री सो रहा है। शायद उसे शहर ही पसंद हों। आखिर वहाँ ही उसे आजीविका चलाने के लिए रोज़गार मिला होगा। तो खैर उसको सोने देते हैं। जब जहाँ जैसा करने की स्वतंत्रता भी एक वरदान है जिसकी सराहना करना हम अक्सर भूल जाते हैं।
ट्रैन के संदर्भ से गुजरते हुए जैसे ही मैंने भी समय की विपरीत दिशा में सफर करना शुरू किया तो यकायक यादों का बाजार सज गया। स्कूल की मनोहर यादें, भाई बहन के साथ बचपन की तकरार, माँ की रोटी बनाने की पट पट आवाज़, बब्बा के बजाज का स्कूटर रूपी हवाई जहाज से लेकर कॉलेज की घटनाएं, बियोस्कोप की झलकियों की तरह नज़र आने लगीं। नैनीताल में तालाब के किनारे किनारे चलकर स्कूल तक जाना एक रोमांच से कम नहीं रहा कभी। मिनाक्षी और दीपशिखा के साथ स्कूल जाना, मिनाक्षी की रोज़ की ₹३० की पॉकेट मनी से बेहद अय्याशी करना, हाई कोर्ट में तिरंगे को रोज़ सलामी देना, रिक्शा ना मिलने पर मिनाक्षी की अमीरी का मज़ा लेते हुए नांव में घर वापस आना, फिर घर के रास्ते में बंदरों के आतंक से बचना। घर आकर दीदी के साथ स्वेट कैट्स से लेकर रमोला सिकंद को कभी सौतन कभी सहेली में देखना। शाम को पड़ोस में बच्चों के साथ कैरम का विम्बलडन प्रतियोगिता करना, बब्बा के द्वारा माँ को अपनी पसंद की चीज़ लाने की अनुमति माँगना इत्यादि इत्यादि। यादें ना हो गई, कुबेर का धन हो गया, खत्म ही नहीं होता।
पर अब ट्रैन अचानक किसी अनजान जगह रुक गई है। ऐसा लगने लगा है मानो समय रुक गया हो। यादों का पहिया एकाएक टूक टूक करते हुए मुझे देखने लगा। बहुत मासूम सा लग रहा है। और थोड़ा ओझल सा होने लगा। रुके हुए पहिये ने मुझे वास्तविकता में धकेल दिया है। अपनी निजी जीवन की चोनौतियों का ध्यान आने लगा। क्या क्या सोचा था और क्या पाया, यह प्रश्न हरा होने लगा। भविष्य की अनिश्चितता फिर दिल दहलाने लगी।
लेकिन ट्रैन अब फिर चल पड़ी है। धीरे धीरे मैं फिर विपरीत दिशा को देखने लगी। पिटारा फिर सजने लगा। पर अब कुछ अलग बात है। रूकी ट्रैन में हुए एहसास ने अब इस पिटारे को और भी खास बना दिया है। अचानक महसूस हुआ की कितना लंबा सफर तय कर लिया है। ट्रैन ने भी और मैंने भी। अच्छा या बुरा जैसा भी हो। पर सब गुज़र गया। क्योंकि यही नियम है। वक्त चाहे अच्छा हो या बुरा, छाप बस यही छोड़ता है की गुज़र गया। यदि आज अपने किसी भी मुसीबत से आप दुखी एवं संदेह में हैं की हालात कब सुधरेंगे, तो आप अपनी यात्रा को याद करिये।
जरूरी नहीं की हर उपलब्धि समाज के तराजू में बड़ी हो।पर यह तो हरगिज़ भी जरूरी नहीं की आपके जीवन का जौहरी समाज बने। आपकी यात्रा को आपने अब तक कितनी सुंदरता से पार किया है इसका एहसास होना भी किसी उपलब्धि से कम नहीं। सीट अच्छी मिले या बुरी ,यात्रा तो चलती रहेगी। ट्रैन कभी खराब भी हो जाए तो भी देर सवेर कोई टेक्नीशियन उसको ठीक कर ही देगा। और स्टेशन आने पर आपको ट्रैन से उतारना भी होगा ही। इसलिए कभी कभी अपनी तय करी हुई यात्रा की सुंदरता पर नाज़ कर लीजिए। अच्छा लगेगा। जैसे अभी मुझे लग रहा है।
Reading this I m leaft wid jst one expression 🙂
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And while writing this, even I had only one expression 🙂
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Nice 👌
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Bahut bahut dhanyavaad. Aap ki writing inspiration hai mere liye 🙂
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Wow Aali. I really like reading your posts.
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Thank you Kamdi 🙂
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I had a smile throughout while reading this. As if I could see you doing all the things.
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Thank you Komal 🙂
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सच ही कहा है किसी ने कि भावनाएं होती तो सभी में हैं पर इन भावनाओं रूपी मोतियों को धागे में पिरोने और प्रस्तुत करने का काम एक मंझा हुआ लेखक ही कर सकता है। कुछ पंक्तियां तो मन को भा गईं। बहुत ही खूबसूरती से लिखा है मैम आपने। ऐसे ही लिखते रहिए।
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Thank you Kashish. Your constant encouragement is the source 🙂
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यह तो हरगिज़ भी जरूरी नहीं की आपके जीवन का जौहरी समाज बने……….. बहुत सुंदर
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धन्यवाद सर
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Inspiring and soothing
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