बीते दिनों कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुईं,
कि मेरी आत्मा मेरे समक्ष हर पल
सवालों की लड़ियाँ बिछाती गयी।
सवाल बहुत थे, जैसे
क्यों जंगल कट रहे?
क्यों आँगन बँट रहे?
क्यों ऋतुएं बदल रहीं?
क्यों विश्व में बेचैनी से भरी चुप्पी घुल रही?
सवालों के बोझ से जब मेरा मन मूर्छित होने लगा,
तब मैंने मरहम रुपी कथा उसको कुछ यूँ कही:
बदलते समाज का यही कुछ हिसाब है,
फूल सूख कर झड़ गए,
अब कांटे ही माने जा रहे गुलाब हैं।
इन काँटों से बस खून ही बहेगा,
धर्म मेरा हो या किसी और का,
अनुयायी उसका प्रेम की अवहेलना पर ही जय करेगा।
समाज गूंगा बन बैठा है,
फोटो में फ़िल्टर लगाकर,
पहले अपनी आत्मा से तो दूर था ही,
अब तो अपनी छवि से भी दूर हो चला है।
भाषा की गरिमा अब ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगी,
मातृभाषा जहाँ मात्र भाषा बन जाए,
ऐसे समाज में खुद की लाज बचाती द्रौपदी
तुमको हर गली चौराहे पर मिलेगी।
आज चंचल हैं आतंकवाद के पुजारी,
इस तालब में अब गन्दी मछलियां ही हैं सब पर भारी।
इसलिए ऐ मन तू कुछ समय के लिए निस्वास हो जा।
सवेरा होने का इंतज़ार लम्बा चलेगा,
रात का अँधेरा थोड़ा और घनेरा होना बाकी है अभी।
जानलेवा
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vaah kya comment hai prashant 😀
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आपने समाज में व्याप्त बुराइयों को काफी भीतर से पहचानने की कोसिस की है, और उसे काफी सराहनीय तरीके से पेश भी किया है।
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Awesome
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Thank you Dhawal
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Jhanjhor dene waali Kavita…sach evam sapaat
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Thank you
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Thank you
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Lovely
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Thanks
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