खामोशी की आवाज़

अक्सर समाज में ऊँची आवाज़ में बोलने वालो का ही बोलबाला होता है। समाज में ही क्यों, आप सब के कार्यालय, दोस्तों, और यहां तक की घरों में भी आप ऐसे लोगो से मिलते होंगे जिन्हें हर बात पर अपनी राय देना और खुद की बात को साबित करने के लिए लगातार अपनी गाथा गा-गा के अपने मुँह मियां मिट्ठू बने रहना बहुत भाता है। ऐसे लोगों को यही लगता है की वे ख़ास हैं, निर्णायक भूमिका निभाते हैं और किसी भी गुठ का नेता बनना उनके स्वभाव में है। दूसरी तरफ वो लोग हैं, जो शांत व्यवहार के होते हैं। ना अपना आपा खोते हैं, ना अपने विचारों पर सहमति के लिए हल्ला बोल करते हैं। ऐसे लोगों को अक्सर कमज़ोर माना जाता है। बस ऐसी ही स्टीरीयोटाइपिंग का नतीजा है की हम अपने बच्चों को खुल कर और आगे बढ़ कर बोलने की सीख देते हैं। मेरा ये मानना खैर बिलकुल नहीं की यह सीख देना कोई गलत बात है। विचारों की अभिव्यक्ति एक स्वतन्त्र समाज की निशानी है।

पर हाँ मैं ये बिल्कुल नहीं समझती की यदि आप बड़बोले हैं तो वह आपको नायक/नायिका होने का सर्टिफिकेट देती है। ना ही ये बात सच है की कम बोलने वाले वैचारिक शक्ति में भी कमज़ोर होते हैं। अपितु अपने बड़बोलेपन के कारण खुद को समझदार समझने का एहसास भी आपको तब ही मिलेगा जब कोई आपकी बात को सुनेगा। इस हिसाब से तो वह शांत व्यक्ति आप से कहीं ज्यादा उच्च हो गया! यदि कोई सुने ही ना और सब अपने ही नाम जपने लगें तो “उच्च” होने का एहसास कैसे मिलेगा जनाब?

यूँ तो हम धरती पर जीवन भर बसर करते हैं, किन्तु क्या हम धरती की तुलना में ज्यादा उच्च हैं? चाहे हम धरती पर कितना भी तन्न कर चलें, झंडे गाड़ें, खनन करें, पर फिर भी धरती हमेशा श्रेष्ठ रहेगी। इस धरती ने हमें वह सब करने की आजादी दी है जिससे हमें लगे की हम उच्च हैं। धरती की ये खामोशी ही है जो हमें आसमान की ऊंचाई तक भी पहुंचा देती है। और जो एक करवट भी ली इसने, फिर कितना भी कोलाहल क्यों ना कर लें, सब उस करवट में समा जाएगा।

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