साबुन की टिक्की खत्म हो चुकी है,
पर न जाने फिर भी क्यों ये हाथ साफ नहीं होते।
लगता है ये हाथ बस ऐसे ही धुल ना सकेंगे,
हाथों का मैल तो फिर भी नया है,
दिल पर बुनी मैल की चादर का,
ये हाथ धोने के साबुन आखिर कर भी क्या सकेंगे।
टीवी में तो बोला है कि हाथ साबुन से धो लो, हर दाग मिट जाएगा,
साफ हाथों की लकीरों से एक नये भारत का भाग्य लिखा जाएगा।
शायद ज्ञान बस इतना दिया होता तो हम चमक भी जाते,
सोने की चिड़िया वाले देश के लोग बाहर से भी सोना बन जाते।
पर टीवी ने एक और ज्ञान दे दिया,
वो जो बस एक मैल था,
उस पर साम्प्रदायिकता का रंग चढ़ा दिया।
और रंग तो बस चढ़ते-उतरते हैं,
धुलते नहीं,
शायद इसलिए हाथ कितना भी धो लें,
ये फिर भी धुलते नहीं।
तो क्या सिर टेक दें?
सालों से जो घरोंदा बनाया है उसको पड़ोसी देश की सी विचारधारा से तोड़ दें?
नहीं।
कभी नहीं।
इस घरोंदे को हम टूटने नहीं देंगे,
रंगे हुए अपने दिलों पर,
प्यार और सद्भाव का रंग भरेंगे।
फिर चाहे कोरोना आये या आये उसका बाप,
भारतवासियों के प्रेम और अपनापन का साम्प्रदायिक ज़हर से
बाल भी ना बाकी कर सकेंगे आप।
ये हाथ क्या सच में धुल पाएंगे!

Amazing poem full of hope and love for the nation..
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