गांधारी का दुख

सम्पूर्ण महाभारत युद्ध हो गया था। सभी कौरव भाई युद्ध भूमी पर मरे पड़े थे। तब पांचों पांडव धृतराष्ट्र के समक्ष उनको प्रणाम करने गए। कृष्ण को इस बात का ज्ञात था कि दोनों ही माँ-बाप पुत्र शोक में विलीन होंगे। इसलिए उन्होंने भीम को बोला कि जब तुम धृतराष्ट्र के पैर छू लो तो उनसे गले मिलते समय अपनी ही जैसी लोहे की मूर्ति आगे करना। जब धृतराष्ट्र ने दुर्योधन का वध करने वाले भीम की लोहे की मूर्ति को गले लगाया, तो क्रोध में आकर अपनी पकड़ से मूर्ति को चकनाचूर कर दिया। क्रोध शांत हो जाने पर उन्हें इस बात का बहुत अफसोस हुआ कि पुत्र शोक में उन्होंने भतीजे को मार दिया। पर गांधारी समझ गई थी कि भीम जिंदा है,और उसने बोला “एक बार फिर कृष्ण ने पांडवों को बचा लिया”।

तद्पश्चात पाण्डवों ने गांधारी के पैर छुए। रोने से उसके आँखों की पट्टी भीग गई थी और उसके पार दिख रहा था। रोष भरी उन आँखों ने केवल युधिष्ठिर के पैर देखे थे और अपने रोष से उसका अंगूठा जला दिया। तब कृष्ण ने गांधारी को समझाया कि खुद को मजबूत बनाये और शवों से भरे इस युद्ध भूमी से महल की ओर चलो क्योंकि दुख का कोई अंत नहीं और वो इससे भी बड़ा हो सकता है। गांधारी ने इस बात से साफ इंकार करते हुए कहा कि वो रात के अंधेरे में अपने पुत्रों के शवों को अकेला नहीं छोड़ सकती और बाकी सब महल चले भी जाएं किन्तु वो दाहसंस्कार तक वहीं रुकेगी।

सब चले गए। रात को गांधारी को बहुत भूख लगी। उसको अचानक आम की सुगंध आने लगी। भूखे पेट ने उसको शोक के सागर से क्षण भर के लिए बाहर निकाल दिया था। वो आम के पेड़ पर गई और पत्थरों का ढेर इकट्टा कर उस पर चढ़कर आम तोड़ने लगी। आम खाने के बाद जब उसका पेट भर गया तो उसने ध्यान दिया कि जिसे वो पत्थर का ढेर समझ रही थी,वो उसके अपने पुत्रों के शव थे और अपनी भूख मिटाने के लिए वो उन पर चढ़कर फल तोड़ चुकी थी। दुख में बिलखती गांधारी को कृष्ण की माया समझ आ गई और वो चिल्लाकर बोली “मैं समझ गई कि मेरे पुत्रों की मृत्यु से बढ़कर भी मुझे और दुख मिल सकता है। पर हे कृष्ण इतना निर्मम तरीका अपनाना जरूरी था?” तब गांधारी ने कृष्ण को श्राप दिया कि उनका कुल भी ऐसे ही नष्ट हो और वो किसी मानव के भांति सिवाय दुख झेलने के और कुछ ना कर पाएं।

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