कुछ दिन पहले की बात है, दादी को ककड़ी (खीरा) का रायता बनाना था। वो मुझसे पहाड़ी में बोली, “आली, ऊ रिस्या बटी भुझकोर लि आ, काकड़ कोरूं रय्यता लिजी”। बाकि बात तो मैं समझ गयी कि दादी को ककड़ी कोरने के लिये कद्दूकस चाहिए था, पर ये दादी कद्दूकस को क्या बोल रही थी ये समझ नहीं आया। पूछने पर माँ, बब्बा और दादी तीनों को बड़ा अचम्भा तथा थोड़ा ठेस भी हुआ कि शहरों में रहे हम लोगों का पहाड़ी चीजों का ज्ञान बस “कस हैरीं हाल चाल” जैसे कुछ रोज़मर्रा वाले शब्दों तक ही सीमित है। यह कहना गलत नहीं होगा कि मुझे भी ये ख्याल कहीं ना कहीं आया ही। इसलिए मैंने पहाड़ के खास शब्दों को जानने की जिज्ञासा अभिव्यक्त करी। और क्योंकि पूरी कहानी रसोई से शुरु हुई, इसलिए शुरुआत भी रसोई से हुई और आज ये लेख पहाड़ी रसोई के कुछ खास बर्तन इत्यादि को समर्पित है जिनके नाम दुर्भाग्यवश शायद हम में से ज्यादा नहीं जानते होंगे। फ़ोटो निकल पाने का श्रेय मेरी मामी को जाता है जो कि सोमेश्वर, उत्तराखंड में इंटर कॉलेज की अध्यापिका हैं। आप सब भी अपना ज्ञान तोलें और यदि सब पता हो तो बहुत बधाई किन्तु ना पता हो तो याद करने की बधाई।











इनके अलावा भी ऐसे सैकड़ों बर्तन हैं जो कि खास पहाड़ों में ही काम आते हैं। सबकी फ़ोटो मिलना तो मुश्किल था पर कुछ एक के नाम जरूर लिए जा सकते हैं।
- रै : मथनी
- ब्याल, बेल्ली: कटोरी
- चाशंड़ी: बड़ी कड़ाई
- झांझर: छेद वाला करछी
- कस्यर: बड़ी तौली
- हड़पी: घी रखने का बर्तन
- भकार : अनाज रखने का बर्तन