दिवाली का समय नज़दीक है। दिन की धूप भी अब अच्छी लग रही है क्यूंकि हवा में थोड़ी ठंडक लगने लगी है। आज यूं ही दिन में मैं धूप में बैठी, अपना कुछ काम कर रही थी। तभी नीचे से किसी आदमी की आवाज़ आई कि “दीये ले लो, मिट्टी के गुल्लक ले लो”। वैसे तो हम दिवाली दिल्ली में मानाने नहीं वाले पर दीये बेचने वालो कि विवशता पर हर साल बहुत मेसेजस फेसबुक इत्यादि पर पढ़ने और उनसे इत्तेफाक भी रखने के कारण मैंने दो दर्जन दीये खरीद लिए। सामान ऐसे खरीदने में आराम भी है क्यूंकि बालकनी से ही आवाज़ दे दो और छांट लो, बेचने वाला खुद ही ऊपर आके दे जाता है। फिर चाहे वो सब्जी हो, झाड़ू इत्यादि हो, या आज कि तरह दीये ही क्यों ना हो।
दो मिनट में दरवाज़े की घंटी बजी और दीये वाला सामने खड़ा था। पैसे लेने के साथ वो जरा झिझक के बोला, “मेरे साथ मेरा बच्चा भी ठेले को धक्का लगा रहा है। उसको भूख लग गई है थोड़ी। आप कुछ बिस्किट इत्यादि दे सकेंगे उसके खाने के लिए”।
सच कहूं तो दिल पसीज गया ये सुनके। कितनी मजबूर स्थिति होती होगी जब ईमानदारी से दो वक्त की रोटी कमाने वाले की हिम्मत रखने वाले आदमी को, जब इस भरोसे रहना होता होगा कि कोई अगर दीये खरीद ले तो उससे चार बिस्किट भी मांग लूँगा।
इंसान के एक ही समाज में असंख्य सीढ़ियां हैं। कोई हमसे ऊपर, कोई हमसे नीचे। पर ढांचा बनाये रखने के लिए हर सीढ़ी की बराबर की जरूरत है। दीये वाला हमें दीये पकड़ा कर, और पचास रुपये और एक बिस्किट का पैकेट ले कर हमारी सीढ़ियों से नीचे उतरकर पुनः आवाज़ देने लगा “दीये ले लो, मिट्टी के गुल्लक ले लो”।