बस की सवारियां

बस टूटी फूटी सड़कों पर तेज़ तर्रार गति में चल रही थी। घुमावदार कोनों पर ऐसे फर्राटे में गुजरती की बस कम, और झूला ज्यादा लगता। मुझे सबसे पीछे की सीट मिली थी और इस वजह से ऐसा लगता जैसे लहरों पर गोते मारकर और डग्गामार किसी नांव में सफर कर रही हूं। थोड़ा खराब तो लग रहा था पर ज्यादा मज़ा ही आ रहा था। अगल बगल से लोग बढ़िया गाड़ियों में हीरो की तरह जा रहे हैं और मैं आर्ट मूवी की कलाकर जैसी हिचकोले खा रही हूं। पर ये सब छोटी मोटी बातों को दरकिनार कर सकें तो आप बस का सफर बड़े मजे में कर सकते हैं।

हमारी बस में भीड़ उतनी थी नहीं। सब आराम से चुप चाप बैठे थे। कोई आदमी अस्पताल से आ रहा था, तो कोई ऑफिस से, तो कोई अपने परिजन से मिलने। तभी अचानक बस एक सरकारी स्कूल के सामने रुकी। रुकते ही बस में बच्चों का सैलाब उमड़ पड़ा। दो-दो चोटी बनाई लड़कियां, सलवार कुर्ता और उस पर तीन पिन करी हुए दुपट्टा डाली हुईं, भारी भरकम बस्ता कंधों पर लादे, और चेहरे पर जोरदार हंसी और बातों का भंडार लिए बस में खड़ी हो गईं। उसी तरह स्कूल में पढ़ने वाले लड़के जिन्होंने सीधे साधे पैंट शर्ट पहने थे वो भी बस में तिल के दानों जैसे इधर उधर खड़े हो गए। अब जब बस चली तो ऐसा लगने लगा एक नई ऊर्जा बस में आ गई हो। बस में अब ठहाकों की आवाज़ें आने लगीं, स्कूल में हुई नोक झोंक पर किस्से कहानी सुनने में आने लगे। गोते खाती हुई बस को बचपन का एहसास होने लगा और शायद एकाएक वो खुद को पहले से कम पुरानी और टूटी फूटी देखने लगी।

कुछ समय बाद बच्चे अपने अपने स्टॉप पर उतर गए। बस फिर से शांत हो गई है। लगने लगा आज का आनंद यहीं तक था। पर फिर एक स्टॉप पर बस में एक अलग ऊर्जा का आगमन हुआ। शायद उस स्थान पर अंधे व्यक्तियों का स्कूल या ट्रेनिंग सेंटर हो, कि उस स्टॉप से बस में लाइन लगाए हुए 6 से 7 अंधे व्यक्ति चढ़ गए। सबके एक हाथ में छड़ी थी और दूसरा हाथ अपने सामने वाले के कंधे पर था। इस सबके अलावा उन सबके चेहरे पर ना जाने किस बात को लेकर एक हंसी थी। बेढ़ंगे से दांत थे ज्यादातर के और कपड़े भी कुछ खास नहीं। शायद वो खुद को और अपने साथियों को देख पाते तो बस में बैठे बाकी लोगों की तरह बिना किसी भाव के ही बैठे या खड़े रहते। पर बाहरी दुनिया से इत्तेफाक ना रख पाने के कारण उन्हें ना तो अपने टेढे-मेढे दांतों से कोई दिक्कत थी और ना ही उन पर तरस खाती बाकी लोगों की नज़रों से।

मन ही मन मैंने उनको नमन किया। हम ज्यादतरों के पास उनसे कहीं ज्यादा अच्छे नैन नक्श हैं, कपड़े हैं, संसाधन हैं। पर फिर भी काफियों के पास वो चैन नहीं, शांति नहीं, और चेहरे पर वो मुस्कान तो हरगिज़ नहीं। शायद इसलिए क्योंकि हम सब देख तो सकते ही हैं, और देखते भी हैं। लेकिन देखने के बाद तोलते उससे भी कहीं ज्यादा हैं। “उसकी गाड़ी मुझसे अच्छी है”, “उसके घर में एक कमरा ज्यादा है”, “उसकी मुझसे ज्यादा अच्छी नौकरी है”,”उसकी शादी हो गई”, “उसकी शादी नहीं हुई”, “उसके कितने प्यारे बच्चे हैं”, “उसके बच्चे हैं”, “उसका ये” , “उसका वो”। और ये सब तब, जब हम सब जानते हैं कि किसी का जीवन सर्वोपरि नहीं है। सब अपने हिस्से के सुख दुख भोग रहे हैं और बहुत बड़िया ढंग से निभा रहे हैं।

माना कि प्रत्येक व्यक्ति प्रतिभाशाली नहीं,

किंतु वह केवल अवगुणों से अभिशप्त भी तो नहीं।

काले बादलों में ही मोर नाचता है,

और एक उल्लू है जो सुनहरी धूप को भी नहीं देख पाता है।

आली पंत

तो चलिए याद करें की साल 2021 अंत होने ही वाला है। ये साल लाखों लोगों को अनायास ही हमसे दूर ले गया। इस साल हम सबने ना जाने क्या क्या देखा। जीवन खो जाने का भय क्या होता है, एकदम नजदीक से जाना। कोरोना की दूसरी लहर ने ना जाने कितनो के घर और सपनों पर कहर बरपाया। इस सबके बाद भी यदि आप अभी ये लेख पढ़ रहे हैं तो एक पल के लिए ही सही पर शुक्रिया अदा करें। प्रेम करें और मौज मनाएं। तोलें कम और बांटें ज्यादा। और अभी के लिए ये गाना सुन लें।

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