किस्सा किस्सा लखनौवा: किताब का अनुभव

हर एक शहर में एक आदमी होता है , और हर आदमी में एक शहर। कितनी ही सच है ये बात। हर शहर का व्यक्तित्व, पहनावा, खान-पान देखो तो उसकी खासियत ऐसी लगती है मानो शहर ना हो बल्कि एक इंसान ही हो। अपने में खास। और उसी शहर के आप किसी भी व्यक्ति को ले लें, तो उसके किरदार में ही इतने रूप होंगे जैसे आदमी नहीं बल्कि अपने में पूरा शहर समेटे हो। इसलिए शहर की पहचान उसके इंसानों से होती है, और इंसान की पहचान उसके शहर से। और कुछ शहर इस कथन पर सौ बट्टे सौ नंबर लाते हैं। जैसे की लखनऊ। आज ना जाने लखनऊ के क्या हाल हैं, पर एक समय था जब लखनवी खासियत के बेजोड़ चर्चे थे। ऐसे ही कुछ चर्चों का संज्ञान लेकर आई है हिमांशु बाजपेयी की किताब “किस्सा किस्सा लखनौवा”।

इस छोटी सी किताब में लखनऊ की रूह की बहुत खूबसूरत झलक मिलती है। अपने छोटे छोटे अध्यायों में किताब आम लखनवी लोगों का जीवन सुनाती है। जहां कहीं आपको सितार वादकों के किसी किस्से से रूबरू कराया जाएगा, तो कहीं किसी पागल दीवाने शायर से। कहीं आप समझेंगे कैसे दिल्ली और लखनऊ एक दूसरे से शायराना प्रतिस्पर्दा करते थे, तो कहीं किस्सा होगा की कैसे दिल्ली के साथ हुई जिल्लत का बदला लखनऊ ने लिया। किस्से इतने मनमोहक, आम, और फिर भी खास हैं कि हर अफसाना आपका दिल छू लेगा।

बात बस किस्से-कहानी तक ही होती तो भी शायद इतनी खास नहीं लगती। पर हिमांशु जी ने किताब ऐसी खूबसूरत उर्दू में लिखी है, कि माना कई जगह समझ आए नहीं पर पढ़ने में आनंद ही आनंद आया। अब जैसे ये वाक्य ही ले लीजिए:

"बुज़ुर्ग कहते थे कि तहज़ीब किसी नवाब के शबिस्तान में रखा हुआ गुलदान नहीं कि चन्द ख़ास लोग ही उसके मालिक-मुख़्तार बन जाएँ। तहज़ीब तो फ़क़ीर के हुजरे से उठने वाली लोबान की वो ख़ुशबू है जो बग़ैर किसी भेदभाव के अमीर और ग़रीब दोनों को महकाती है।"
"हुज़ूर बज़्म की रौनक़ सीरत से होती है, सूरत से नहीं।"

नवाबी शहर की एक झलक देने में ये किताब बहुत कारगर है। इसको पढ़के पता लगेगा की लखनऊ में बस बड़े-बड़े राजा-महाराजा और नवाब ही राजवंशी नहीं थे, बल्कि अदा और अंदाज़ देखे जाएं तो रिक्शा चलाने वाले तक अपने में नवाब थे। आज ना जाने कितनी ही तहजीब बची होगी लखनऊ में, पर उम्मीद खास है नहीं। इसलिए किताब को पढ़िएगा। जो है नहीं कम से कम उसको अक्षरों से ही जी लें। क्योंकि पढ़ेंगे नहीं, तो इन अक्षरों और किस्सों की भी तो मौत हो जाएगी।

सुख़न मुश्ताक़ है आलम हमारा

बहुत आलम करेगा ग़म हमारा

पढ़ेंगे शेर रो रो लोग बैठे

रहेगा देर तक मातम हमारा

मीर तक़ी मीर

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