आज दिन में मैं अपनी मित्र हिना द्वारा भेंट करी गई किताब पढ़ रही थी। किताब का शीर्षक है “रवीन्द्रनाथ की कहानियाँ”। क्यूंकि मुझे बांग्ला पढ़ना नहीं आता इसलिए किताब हिंदी में अनुवादित थी। जो कहानी मैंने पढ़ी उसका शीर्षक था “आधी रात में” और उसका सारांश कुछ यूं है:
“गाँव के एक ज़मींदार दक्षिणाचरण बाबू अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे। उनकी पत्नी बहुत मन से अपने पति का ध्यान रखतीं पर अपने लिए दक्षिणाचरण बाबू को कुछ ना करने देतीं। एक समय ऐसा आया जब ज़मींदार की पत्नी बहुत बीमार पड़ गयी। अपने पति के सुख की आकांक्षा रखते हुए, उसने चाहा की उसके मरने के पश्चात दक्षिणाचरण बाबू दूसरी शादी कर लें। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए उनकी पत्नी ने जीते जी अपने पति को एक और लड़की से मिलने की प्रेरणा दी। पत्नी का देहांत हो जाने के बाद, दक्षिणाचरण बाबू ने दूसरी शादी कर ली। पर फिर भी उन्हें अपनी पहली पत्नी के होने का एहसास होता रहा। कहानी दक्षिणाचरण बाबू एक डॉक्टर को सुना रहे थे,जिनका दरवाज़ा वे आज फिर आधी रात में घबराहट में खटखटाते हैं।”
कहानी को इस तरह संक्षिप्त में पढ़ने में यह शायद ही किसी को दिलचस्प लगे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने इसी साधारण सी घटना को जो विस्तृत रूप दिया होगा वह ही उन्हें भीड़ से अलग करता है। उनकी कथा में भाव भी होंगे, भाषा की मधुरता भी होगी और विचार बेहद खूबसूरती से पढ़ने वाले तक पहुंचाए भी गए होंगे। किन्तु मैंने इसका हिंदी में अनुवाद पढ़ा। और शायद यह कहना उतना गलत नहीं होगा की आपको पूरी कहानी पढ़ने से अच्छा, ऊपर लिखा हुआ सारांश ही लगे। यदि आपको झूठ लग रहा हो या मेरे शब्दों में दम्भ की बू आये तो आप उदाहरणतः कहानी का एक छंद स्वयं पड़ें और बताएँ।
अंक यह है की एक रोज़ ज़मींदार अपनी बीमार पत्नी को ये बता रहा है की वो उससे बहुत प्यार करता है। इस बात का अनुवाद कुछ ऐसा है:
” मॉलश्री के दो-एक खिले हुए फूल झर रहे थे और शाखाओं के बीच से छायांकित ज्योत्सना उनके शीर्ण मुख पर आ रही थी। चारों और शान्ति और निस्तब्धता थी; उस सघन गन्धपूर्ण छायान्धकार में एक और चुपचाप बैठकर उनके मुख की और देखकर मेरी आँखों में पानी भर आया।
मैंने धीरे-धीरे बहुत समीप पहुंचकर अपने हाथों में उनका एक उत्तप्त जीर्ण हाथ ले लिया। इस पर उन्होंने कोई आपत्ति न की।कुछ देर तक इसी प्रकार चुप बैठे-बैठे मेरा ह्रदय न जाने कैसा उद्द्वेलित हो उठा। मैं बोल उठा, ‘तुम्हारा प्रेम मैं कभी नहीं भूलूँगा’।“
इस छंद में लेखक ज़मींदार की एक बहुत जटिल भावना का वर्णन कर रहा है। किन्तु स्पष्ट अनुवाद करने के प्रयास में, लेखक ने ज़मींदार की भावना को तो समझा हो की नहीं, अपनी भाषा को इतना जटिल बना दिया की पढ़ने वाला भला कैसे ज़मींदार का हाल-ऐ-दिल समझे!
यह सब कहने से मेरा लेखक का मखौल उड़ाने का उद्देश्य बिल्कुल नहीं है। उद्देश्य यह है की ऐसे ही एक कहानी के अनुवाद की तरह, यदि आप किसी व्यक्ति की भावनाओं के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकते, तो आप कभी भी उसकी मनोदशा को ना ही समझ सकते हैं और ना ही उसका अभिप्राय निकल सकते हैं। आप बस उसके मुँह से निकले शब्दों का अपने मन में अपने अनुसार अनुवाद कर सकते हैं। और अनुवाद तो बस शब्दों का होता है, भावनाएं तो महसूस करनी पड़ती हैं।
आज समाज में बढ़ती नकारात्मकता एवं अकेलेपन का बहुत बड़ा कारण यह है की हम बस शब्द सुन रहे हैं। कोई अपनी आप बीती आपको सुनाये तो उसको बस सुनें नहीं, बल्कि उसको भावनात्मक स्तर पर समझने की कोशिश करें। पर क्यूंकि आज समय किसी के पास है नहीं, तो ऐसे संवेदनशील लोग मिलने मुश्किल हो जाते हैं। यदि ऐसा कोई व्यक्ति विशेष आपको मिल जाए तो उसको अपना सौभाग्य समझिये और पकड़ कर रख लीजिये। मैंने तो रख लिया है। आप भी जाने मत दीजियेगा ऐसे हीरों को।
एकदम सही ।। सम्पूर्ण सहमती।। परन्तु किसी से अपेक्षा करने से बेहतर ये भी है कि खुद को फौलादी बनाया जाए।।
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Koi do-raahein nahin iss baat mein ki banana to khud ko hi faulaadi hai
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