खुद्दारी

दोपहर के २ बज रहे थे। मीना रसोई का चूल्हा करकट करके निपटी ही थी। दोपहर के समय दो घड़ी आंख झपका लेने से उसको स्फूर्ति आती है। शांत कमरे में अखबार पढ़ते पढ़ते जो उसको नींद का हल्का झोंका आया ही था, कि अचानक बाहर गली से आवाज़ आई, “सिल बट्टा फुड़वा लो सिल बट्टा”। गली में सिल बट्टा फोड़ने वाला आया था। मीना की आंख खुली सी रह गई। आज ना जाने कितने सालों बाद उसने ऐसी पुकार सुनी थी। चिलचिलाती धूप में, जब बाहर लीची के पेड़ों से गुजरती हवा की हल्की सांय सांय आवाज पानी की तरह बह रही थी, उस पर सिल बट्टा बनाने वाले की पुकार पानी में एकाएक गिरे पत्थर की आवाज़ जैसी खुबसूरत लग रही थी।

मीना को उसका सिल बट्टा याद आया। बरसों से मरम्मत ना होने के कारण वो अब मखमल जैसा चिकना हो गया था। ज़माने से कभी दाल तो कभी चटनी आदि को महीन करते करते उसने अपनी खुरदुराहट भी खो दी थी। लगने लगा था जैसे सिल बट्टा भी मीना की तरह बूढ़ा हो चला हो। पर जहां बूढ़ी होती मीना के साफ चेहरे पर झुर्रियों ने डेरा डालना शुरू किया था, वहां इस पत्थर के धब्बेदार चेहरे को समय ने भर दिया था। मीना को लगा अब समय आ गया है सिल बट्टे को दुबारा नया करा जाए।

मीना ने बाहर जा के बाबा को आवाज लगाई, “ओ सिल बट्टा वाले बाबा, इधर आना”। बाबा बूढ़ा था, मीना से कहीं ज्यादा। वो तुरंत मीना की आवाज सुनकर लौट आया और आंगन में बैठ कर अपने झोले से औजार निकलने लगा। मीना ने मालकिन सा रौब दिखाते हुए पूछा, “कितना लेते हो सिल बट्टा फोड़ने का?” बाबा बोला ” पचास रुपए”। मीना बोली, “ये तो बहुत ज्यादा है, तीस ले लो”। बाबा को मीना की बात बिलकुल ठीक नहीं लगी और उसने बड़े मान से अपना तर्क रखते हुए कहा, “आज सालों बाद तूने मेरे जैसे कारीगर की आवाज सुनी होगी गली में। कभी सोचा ऐसा क्यों? कहां चली गई ये सिल बट्टा फोड़ने वाली पुकार?”। मीना को बाबा की बात समझ नहीं आई, “ये सब छोड़ो, पैसे कम कर सकते हो की नहीं ये बताओ?”। बाबा भी मीना से ऐसे बोलने लगा जैसे उसी का बिछड़ा बाप या तो दादा हो, “अपने इलाके की सारी मिक्सी बंद करवा दे तो मैं चार आने में सिल बट्टा फोड़ दूं”।

मीना थोड़ा सकपका गई। होने को वो भी नर्म दिल की इंसान थी। उसने सोचा वैसे भी कबसे घर कोई आया नहीं है, आज ये बाबा से ही थोड़ी बातचीत कर लूं, और धीरे धीरे इसको कम पैसों में काम करने के लिए मना ही लूंगी। मीना बोली “बाबा कुछ खाया है सुबह से?”, बाबा बोला “चाय पिला देगी अगर तो थोड़ी राहत मिल जाएगी मुझे इस गर्मी में”। मीना ने बाबा को आंगन में ही बैठने को कहा और अंदर जाकर दो कप चाय बना के ले आई। चाय के साथ उसने एक प्लेट बिस्किट भी आंगन में रख दिए। बाबा ने बड़े आराम से चाय में डूबा डुबाकर बिस्किट खाने शुरू करे। दांत ज्यादा थे नहीं बाबा के, तो धीरे धीरे बातें करते करते उसने मीना के संग आंगन में चाय पी ली। चाय खत्म होते ही उसने मीना से एक कागज मांगा और बचे हुए बिस्किट बिना पूछे ही कागज में बांध कर अपने मैले से झोले में कहीं दबा दिए। मीना को ये सब देख मन ही मन हंसी आने लगी। नाश्ता और बातें हो जाने पर मीना ने फिर से अब बाबा को सिल बट्टा फुड़वाने का पैसा पूछा। ये सुन बाबा गुस्से में बोला, “कहा तो पचास रुपए में होगा काम। हैं तो बता वरना मुझे आगे निकलना है”। मीना को बाबा की खुद्दारी पर गुस्सा भी आया और मजा भी। जहां चार रुपए ऊपर से दे देने पर लोग किसी के लिए क्या से क्या नहीं कर देते हैं, ये बूढ़ा बाबा खाली हाथ चला जाएगा पर अपने सिद्धांत से नीचे नहीं उतरेगा। पर मीना के हाथ भी तंग थे। घर में कोई दूसरा रहने को नहीं है, सिल बट्टे पर पिसे हुए पकवान खाने को अब कोई नहीं, तो वो भी अपनी नाक क्यों झुकाए। उसने बाबा को मना करते हुए घर का दरवाजा लगा दिया। बूढ़ा बाबा उस शांत घर की ओर देख कर सोचने लगा “उसको शायद पत्थर फुड़वाना ही नहीं था, बस दो कप चाय बनाने का कोई कारण ढूंढना था”।

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